दैनिक मूक पत्रिका सूरजपुर/चांदनी – बिहारपुर क्षेत्र का छोटा सा गांव सपहा आज छत्तीसगढ़ शासन की संवेदनहीनता और झूठे सुशासन के दावों का बड़ा प्रतीक बनकर उभर रहा है। गांव के ग्रामीण, महिलाएं, पुरुष, बुज़ुर्ग और बच्चे, लगातार 73वें दिन से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठे हैं, लेकिन न तो कोई अधिकारी सुध ले रहा और न ही कोई जनप्रतिनिधि गांव तक आने की जहमत उठा रहा।
बुनियादी सुविधाएं मांगना क्या अपराध है?
गांव में न बिजली है, न शुद्ध पानी, न सड़क, न पुलिया, न सामुदायिक भवन, न वन अधिकार पट्टा, और न ही कृषि हेतु सोलर या ड्यूल पंप की सुविधा। यह हड़ताल इन्हीं मूलभूत अधिकारों की मांग को लेकर हो रही है, जिसकी फेहरिस्त ‘सुशासन तिहार’ में आवेदन के रूप में दी गई थी।
परंतु दुर्भाग्य यह है कि इन मांगों के जवाब में सपहा के ग्रामीणों को विकास कार्य न देने की धमकी दी जा रही है। भैयाथान के एसडीएम द्वारा लिंक कोर्ट में यह कहा जाना कि हड़ताल नहीं खत्म की तो गांव को विकास नहीं मिलेगा सीधे तौर पर लोकतंत्र का मज़ाक उड़ाने जैसा है।
प्रशासनिक संवेदनहीनता और नेताओं की चुप्पी, दोनों शर्मनाक
सवाल यह है कि क्या ये ग्रामीण विदेशों से आए हैं? क्या ये कोई अपराधी हैं?
या सिर्फ इसलिए उपेक्षित हैं क्योंकि ये शांतिपूर्ण ढंग से अपने अधिकार मांग रहे हैं?
73 दिन से तपती धूप, बारिश और खेतों की मजबूरी के बीच भी ग्रामीण अपनी लड़ाई पर डटे हुए हैं। पर कुंभकर्णी नींद में सोए स्थानीय अधिकारी और प्रदेश स्तरीय जनप्रतिनिधियों की चुप्पी अब संदेह से ज्यादा शर्मनाक बन चुकी है।
15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस नहीं, गुलामी का जश्न मनाएंगे ग्रामीण
ग्रामवासी साफ कर चुके हैं कि अगर 15 अगस्त 2025 तक उनकी मांगे पूरी नहीं हुईं, तो स्वतंत्रता दिवस का बहिष्कार कर केंद्र व राज्य शासन, जनप्रतिनिधियों और जिम्मेदारों का सामूहिक पुतला दहन किया जाएगा।
उनका कहना है कि जब 75-76 सालों में भी गांव को आज़ादी के मायने नहीं मिले, तो यह आज़ादी किसके लिए है? आम जनता आज भी गुलाम है, बस चेहरे बदले हैं, जंजीरें नहीं।
सुशासन तिहार का काला सच, थाली परोसी लेकिन उसमें कुछ नहीं

गांव वालों का दर्द स्पष्ट है, सरकार ने कैंप लगाकर आवेदन मांगे, वादे किए, लेकिन जब देने की बारी आई तो धमकी दी गई। यह न सिर्फ लोकतंत्र की अवमानना है बल्कि जनता के आत्मसम्मान का अपमान भी है।
अब ग्रामीणों ने ठान लिया है, यह आंदोलन रुकने वाला नहीं है। यह सिर्फ सपहा की लड़ाई नहीं, बल्कि उन सभी गांवों की आवाज़ है जहां सरकारें आती हैं, वादे करती हैं और फिर गायब हो जाती हैं।